Friday, 9 June 2017

महात्मा गाँधी हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा दूर शिक्षा निदेशालय



परिचय

इस परियोजना कार्य में मानव संसाधन विकास पर विचार किया जायेगा. इस परियोजना कार्य का एक प्रम्हुक उद्देश्य यह भी है की किस तरह से मानव संसाधन विकास हे द्वारा आज की कंपनिया अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकते है.
प्रबन्धन मानव की एक विशेषता है| मानव बिना प्रबन्धन के नहीं रह सकता. मानव की विचार करने की क्षमता ही उसे प्रबन्धन करने को अभिप्रेरित करती है| वास्तविकता यह है कि व्यक्ति के कार्य सुप्रबन्धित व कुप्रबन्धित हो सकते हैं, किन्तु प्रबन्धन के बिना कोई भी कृत्य मानव द्वारा किया जाना, सम्भव ही नहीं है. प्रबन्ध गुरू के रूप में विख्यात प्रबन्ध विद्वान पीटर ड्रकर के अनुसार, "किसी भी देश के सामाजिक विकास में प्रबन्ध निर्णायक तत्व है प्रबन्ध आर्थिक व सामाजिक विकास का जन्मदाता  है. विकासशील राष्ट्र अविकसित नहीं बल्कि कुप्रबन्धित हैं." श्री ड्रकर का कथन राष्ट्र के सम्बन्ध में ही नही, व्यकि के सन्दर्भ में भी सही है.
जब व्यक्ति यह स्वीकार कर लेता है कि  उसके आसपास या उसके जीवन में कोई समस्या है, तो वह आगे विचार करता है कि समस्या क्यों है और क्या इसका निराकरण संभव है? वास्तविकता को स्वीकार करना और उसका निराकरण करने का मार्ग खोजना ही प्रबन्धन का आधार है. उदाहरण के लिये, मेरे सामने समस्या यह है कि मैं इस ब्लोग पर नियमित नहीं लिख पा रहा. मेरे द्वारा यह स्वीकारोक्ति ही कि मैं नियमित नहीं लिख पा रहा, जबकि मुझे ऐसा करना चाहिये. मुझे यह विचार करने का मार्ग सुझाती है कि मैं नियमित क्यों नहीं लिख पा रहा? अब आवश्यकता इस बात की है कि मैं विचार करूं कि मैं नियमित क्यों नहीं लिख पा रहा? इस पर विचार करने पर अनेक कारण सामने आ सकते हैं, मसलन व्यवस्थित इन्टरनेट संयोजन का न होना, लिखने के लिये समय की कमी, लिखने के लिये ब्लोग के लिये पूर्व-निर्धारित विषय से सम्बन्धित शीर्षकों का निर्धारण न कर पाना आदि अनेक कारण हो सकते हैं, जिन्हें तथ्य कहा जा सकता है. समस्या के समाधान व निराकरण के लिये इस प्रकार के तथ्यों का संकलन, व्यवस्थितीकरण, विश्लेषण व अध्ययन करके समाधान के लिये एक योजना बनाना आवश्यक है. इस प्रकार की योजना बनाने के कार्य को ही प्रबन्धन की भाषा में नियोजन कहते हैं.
मानव संसाधन विकास
जब से मानव ने समूह में रहना प्रारंभ किया है, तब से किसी न किसी रूप में मानव की गतिविधियों में प्रबंध का अस्तित्व रहा है। प्रबंध एक सर्वव्यापक व अमूर्त अवधारणा है, जिसे देखा व छुआ नहीं जा सकता केवल महसूस किया जा सकता है। मेरे विचार में प्रबंध ईश्वर की तरह सर्वव्यापक है तथा विश्व का सबसे बड़ा प्रबंधक ईश्वर है, जो समस्त गतिविधियों का सुचारू प्रबंध करता है। जिस प्रकार ईश्वर व उसके कार्यो की व्याख्या सम्भव नहीं है; उसी प्रकार प्रबंध की व्याख्या भी सम्भव नहीं है। लोग अपने-अपने विचार व दृष्टी दृष्टिकोण के अनुसार जिस प्रकार ईश्वर की प्रतिमाएं व उसके बारे में विचारों का सृजन करते हैं; उसी प्रकार प्रबंध की परिभाषाएं  भी विभिन्न दृष्टिकोणों से भिन्न-भिन्न दी जाती रही हैं और दी जाती रहेंगी।
प्रबंध के सन्दर्भ में एक कहानी भी उद्धृत की जाती है- "एक बार कुछ अंधों को एक हाथी मिल गया। उन्होंने हाथी को छूकर, टटोल-टटोल कर महसूस किया और हाथी के बारे में अपनी अनुभूति बताई। हाथी की टांगों को पकड़ने वाले ने हाथी को किसी खम्भे या पेड़ के तने की भांति बताया, पूंछ पकड़ने वाले ने उसे रस्सी जैसा बताया, सूड़ पकड़ने वाले ने उसे सांप जैसा बताया, कान पकड़ने वाले ने हाथी को सूप जैसा बताया, दांत पकडने वाले ने भाले जैसा तो हाथी के पेट को छूने वाले ने हाथी को मशक या दीवार जैसा बताया।" स्पष्ट है कि हाथी के बारे में सही जानकारी किसी को भी न हो सकी। ठीक यही स्थिति प्रबंध के बारे में है। इसकी परिभाषाएं तो बहुतायत में हैं किन्तु एक सर्वमान्य परिभाषा का अभाव ही है। फिर भी अध्ययन के दृष्टिकोण से कुछ परिभाषाओं को ध्यान में रखना उपयोगी रहेगा।

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